बुधवार, 13 जून 2012


चेहरे पर अजनबीपन के
मुखोटे लगा कर भी,
हम नहीं बन सकते अजनबी,
क्योंकि पहचान चुके हैं,
हम दोनों के मन एकदूसरे को,
और ये पहचान अब की नहीं ,
है बहुत पुरानी ,
तभी तो इतने सारे चेहरों की भीड़ में,
 मेरे मन को भाये तो बस तुम ,
जाने कितनी बार ,
पहले भी मिले होंगे हम यूँही ,
और शायद आगे भी मिलेंगे,
नए चेहरों के साथ,
चेहरों का क्या है,
चेहरे तो बदलते रहेंगे,
ये तो एक भ्रम है,
 सच  है तो बस केवल मन,
जो ढूंढ ही लेता है  तुमहे,
हर बार,चाहे  तुम
 लाख दीवारें  खडी  करो
अजनबीपन की,
लेकिन ढूंढ ही लेंगी मेरी आँखे तुम्हे
 हर बार ,हमेशा.





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